बाबा जयगुरुदेव के वार्षिक तपस्वी भण्डारे में उज्जैन में हो रही सतसंग व नामदान की अमृत वर्षा

बाबा उमाकान्त जी ने कबीर साहब के प्रसंग से समझाया गुरु भक्ति को

जब रास्ते पर चलोगे तभी तो मंजिल तक पहुंच पाओगे

उज्जैन (म.प्र.)। सब जीवात्माओं के पिता सतपुरुष द्वारा कठोर दुःख पाते जीवों की रक्षा व उद्धार के लिए इस कलयुग के इतिहास में सर्वाधिक दी गयी हजारों कलाओं से सम्पन्न, सन 1972 तक 20 करोड़ जीवों को और उसके बाद अगले पचास वर्षों में न जाने और कितने ही जीवों को नामदान की अमोलक दौलत से सरोबार करने वाले, जयगुरुदेव नाम को जगाने वाले, शब्द रूपी सर्वत्र विराजमान निजधामवासी परम सन्त बाबा जयगुरुदेव जी महाराज के दसवें वार्षिक तपस्वी भंडारा कार्यक्रम की पूर्व संध्या पर उमड़े भारी जनसमूह को 25 मई 2022 को उज्जैन आश्रम से दिए व यूट्यूब चैनल जयगुरुदेवयूकेएम पर लाइव प्रसारित संदेश में उनके आध्यात्मिक उत्तराधिकारी वक़्त के सन्त सतगुरु उज्जैन वाले बाबा उमाकान्त जी महाराज ने बताया कि सभी जीवात्माओं का असली घर यह दुनिया, मृत्युलोक नहीं है। मृत्यु लोक में तो सब को एक न एक दिन शरीर छोड़ना पड़ता है, चाहे आदमी हो या पशु-पक्षी या पेड़-पौधे।

 

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मनुष्य शरीर पाने का असली लक्ष्य

यही है कि जीवात्मा अपने सच्चे धाम, असला घर सतलोक, जयगुरुदेव धाम पहुंच जाए, इसे मुक्ति-मोक्ष मिल जाए। मुक्ति-मोक्ष यानी जीवात्मा को वापस इस दुःख के संसार में नहीं आना पड़े। जैसे कहीं-कहीं श्मशान घाट पर  मुक्तिधाम मोक्षधाम लिखा रहता है। वहां कोई मुर्दा जलाने ले जाता है तो वापस नहीं लाता, चाहे जलाने में कितना भी समय लग जाए। इस शरीर रूपी मिट्टी के खिलौने को मिट्टी में मिला करके ही वापस आता है। ऐसे ही इस जीवात्मा की मुक्ति तब होगी जब वह अपने देश अपने घर पहुंचेगी। अभी जिस घर (जमीन, धन आदि) को आप अपना घर कहते हो, वह आपका नहीं है। आपके बाप दादा पूर्वज भी इसे अपना कहते-कहते चले गए। जब उनका नहीं हुआ तो आपका कैसे होगा? अपना असला घर सतलोक, सचखंड, अमरलोक, अविनाशी लोक, जयगुरुदेव धाम है। वहीं चलने का उद्देश्य बनाना है। यह उद्देश्य कब पूरा होगा? जब आप सतसंग की बातों को पकड़ोगे।

जब रास्ते पर चलोगे तभी तो मंजिल तक पहुंच पाओगे

जो नए लोग सतसंग में आए हो, आपको अपने घर पहुंचने का रास्ता नामदान मिलेगा। और जिन्हें नामदान पहले ही मिल चुका है, वह जब उस रास्ते को पकड़ोगे, उस पर चलोगे तो मिलेगा। वो रास्ता है नाम का सुमिरन ध्यान भजन का। जब रास्ते पर चलोगे तभी तो मंजिल तक पहुंच पाओगे। और जिस रास्ते को आप देखे नहीं हो, उस रास्ते को कोई बताएगा तभी तो आप वहां पहुंच सकते हो। तो रास्ता कौन बताता है? सतगुरु बताते हैं। बाबा जयगुरुदेव जैसे महापुरुष सन्त सतगुरु समर्थ गुरु पूरे गुरु मुर्शीद ए कामिल जिन को कहा गया, वो बताते हैं।
तन को जारो मन को मारो।
इंद्रिय सुख भोग बिसारो।।
तब मिलता है, इतनी आसानी से नहीं। जैसे सारे दिन लगातार मेहनत करते हो, खेत में लगातार खून पसीना जलाते हो तब जाकर तनख्वाह मिलती है, अन्न पैदा होता है, इतनी आसानी से नहीं।  लेकिन यदि तरीका मालूम हो जाए, कोई मददगार मिल जाए तो आसान हो जाता है। जैसे अकेला आदमी खेत काटे या अपने किसी मित्र या पड़ोसी या सतसंगी से मदद ले ले। लेकिन करना खुद पड़ता है। 

स्वयं को भी लगना पड़ता है लेकिन मददगार मिलने पर आसान हो जाता है

मदद करने वाले कौन होते हैं? जो उस रास्ते पर चलाते, बताते हैं। जैसे आज्ञा का पालन करने वाले विद्यार्थी को मास्टर ज्यादा पसंद करते हैं क्योंकि वह पढ़ता है, पाठ याद करके आता है, गृह कार्य करके लाता है तो उनकी इच्छा हो जाती है कि इस लड़के को हम खूब पढ़ा दें, अलग से पढ़ा दें, छुट्टी के दिन घर पर भी बुला कर पढ़ा दें, इसे लायक बना दें, मदद कर देते हैं। ड्यूटी के तौर पर स्कूल में सब को पढ़ाते हैं लेकिन तेज होनहार लड़के की वह मदद कर देते हैं। अब होनहार कौन? तेज कौन होता है? जो शिष्य गुरु आदेश का पालन करता है, वो। दुनिया की विद्या सिखाने वाले, एबीसीडी, क ख ग घ पढ़ाने सिखाने वाले भी गुरु होते हैं। और आध्यात्मिक गुरु भी होते हैं। गुरु का स्थान ऊंचा होता है। जब वो गुरु को सम्मान देता है, उनके आदेश का पालन करता है तब वह गुरु भक्त कहलाता है। ऐसे ही इस (सन्त मत) में भी गुरु भक्ति ज्यादा जरूरी होती है। गुरु भक्ति कहते किसको हैं? आदेश के पालन को ही गुरु भक्ति कहते हैं।

कबीर साहब का प्रसंग, गुरु भक्ति क्या होती है

एक आदमी कबीर साहब के पास पहुंचा। पूछा की कि आप अपने सतसंग में गुरु भक्ति की बात करते हो। गुरु भक्ति है क्या चीज़? लंबे सवाल का जवाब भी लंबा रहता है। बताओ तो उतना असर नहीं रहता लेकिन करके दिखा दिया जाए तो ज्यादा असर पड़ जाता है। तो उन्होंने सोचा कि इसको प्रैक्टिकल करके ही दिखाया जाए। तो उस वक्त तेज धूप थी, वैशाख जेठ की गर्मी का महीना था। दोनों झोपड़ी की छाया में बैठे थे। तो कबीर साहब ने अपनी पत्नी लोई को बुलाया। कबीर साहब कपड़ा बुनते थे तो जिससे कपड़ा बुनते थे उसके लिए कहा कि हमारी वह वस्तु यहां कहीं बाहर खो गई है। जरा खोज, देख कहां है। तुरंत (बाहर) चली गई, पूरा यहां-वहां खोज करके आई, बोली मिली नहीं। अरे! नहीं मिली तो चिराग जला कर के खोज। लोई ने चिराग दीपक दिया जलाया। उस समय यही चलता था। दीपक की रोशनी में जैसे खोजते हैं वैसे बाहर चारों तरफ खोजने लगी। बराबर खोज रही थी तो उस आदमी ने कहा महाराज! यह क्या करवा रहे हो आप? धूप में बेचारी परेशान हो रही है। इतनी तेज धूप है और आप इनसे चिराग जलवा कर खोजवा रहे हो। तो बोले यही गुरु भक्ति है। इसी को गुरु भक्ति कहते हैं कि मुंह से निकला नहीं और उस काम में लग गया, वहां अकल नहीं लगाता है आदमी। और जब अकल नहीं लगाता है और करने लग जाता है वही सफल हो जाता है। गुरु भक्ति जरूरी है।



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