नया भारत सुकमा :- बस्तर का इतिहास वारंगल से जुड़ा हुआ था सातवीं सदी से तेरहवीं सदी के बीच वारंगल विरासत में नागौर नाग वंश का शासन रहा है जिस दौरान शिल्पकला को बेहद बढ़ावा मिला था इस दौरान बस्तर के पास शान से मूर्तियों की कलाकारी का केंद्र बस्तर हुआ करता था और यहां हजारों ऐसी मूर्तियां हैं जो आज भी जमीन के नीचे हैं और इनमें भी कई दुर्लभ और अद्भुत मूर्तियां जमीन के नीचे होने का दावा भी किया जाता है लेकिन इलाका अविकसित और पुरातत्व विभाग की निष्क्रियता की वजह से खुदाई नहीं हो सकी ।
बताया जाता है की नागवंश में पाषाण काल की पद्धति को बेहद महत्व दिया गया था और यही वजह है कि बस्तर में बड़ी संख्या में मूर्तियां पाई जा रही हैं मूर्तियों का क्रमबद्ध जहां इंजरम में राम के आने के सुराग के तौर पर कई मूर्तियां रखी गई हैं इसके साथ ही चिंतलनार के मुकरम में गणेश की मूर्तियां हैं वही दोरनापाल से लगभग 53 किलोमीटर की दूरी पर अचकट में शिवलिंग विष्णु गणेश देवी कुंड हनुमान भैरव समेत 9 मूर्तियां देखी गई वही कुछ मूर्तियां कामाराम में देखी गई इसके अलावा कुन्देड़ चिमलिपेंटा किस्ताराम इलाके में भी मूर्तियां देखे गए हैं ।
बस्तर के प्रसिद्ध लेखक और बस्तर को करीब से ऐतिहासिक तौर पर जानने वाले राजीव रंजन प्रसाद बताते हैं की बस्तर की ऐतिहासिक विरासत को ठीक से समझना होगा यहां नल शासकों का शासन था नाग शासकों का शासन था समुद्रगुप्त ने यहां आक्रमण कर अपना प्रभाव छोड़ा । काकतीय चालूक्यों का भी यहां शासन था । साथ ही समानांतर महान आदिवासी संस्कृति महापाषाण काल से आज तक अपनी विरासत समेटे हुए हैं अलग-अलग शासन समय में राजाओं ने अपनी धार्मिक मान्यताओं ने अपने अपने तरह की प्रतिमाएं निर्मित की जो बस्तर के अलग-अलग क्षेत्रों में देखी जा रही हैं ।
बस्तर में इतिहास को प्राप्त पुरातात्विक अवशेषों के आधार पर काल क्रम में जमा पाना कठिन है क्योंकि कभी भी किसी भी स्थल की समुचित एवं वैज्ञानिक ढंग से खुदाई ही नहीं हुई है केशकाल में गढ़ धनोरा के पास कुछ टीले अवश्य उत्खनन किए गए लेकिन उसके बाद से आज तक किसी ने जमीन के भीतर झांकने की कोशिश तक नहीं की । जरूरत है इन मूर्तियों के संरक्षण की क्योंकि इतिहास को बचाना भविष्य को बचाने के बराबर है ।