ऐसा काम करो कि जब शरीर त्यागने का समय आए तो आपको कोई तकलीफ ना हो और हँसते-हँसते इस दुनिया से चले जाओ…

ऐसा काम करो कि जब शरीर त्यागने का समय आए तो आपको कोई तकलीफ ना हो और हँसते-हँसते इस दुनिया से चले जाओ
जीवन में हंसी, खुशी तभी आएगी जब इसी घट (मनुष्य शरीर) में उजाला आएगा
पुणे। जुन्नर, पुणे बाबा उमाकान्त महाराज ने कहा कि त्याग की भावना रखनी चाहिए और जो त्यागी रहता है वही सुखी रहता है। एक से एक राजा-महाराजा हुए, सेठ-साहूकार हुए लेकिन किसी की पूजा नहीं हुई। पूजा किसकी हुई? जिन्होंने कुछ त्याग किया। अब त्याग के लिए इस समय घर, जमीन-जायदाद तो छोड़ना नहीं है, त्याग यह नहीं होता है कि मैं कहूँ आप त्याग करो तो आप बच्चों को छोड़ कर के चले जाओ और बच्चे रोते रह जाएं, कमाई बंद हो जाए, तो लोग परेशान हो जाएंगे। त्याग का मतलब है उससे मोह नहीं होना चाहिए; रहो इसी गृहस्थी में लेकिन मोह ज्यादा ना हो कि इसी में फंसे रहो, इसी में लिप्त रहो। ऐसा काम करो कि जब शरीर त्यागने का समय आए तो आपको कोई तकलीफ ना हो और समय पूरा होते ही इस दुनिया से हँसते-हँसते चले जाओ।
राजा और पंडित का प्रसंग; दुनिया के ठाठ को परछाई की तरह समझना चाहिए
एक पंडित उपदेश देते हुए एक राज्य पहुँचे। वहाँ का राजा बड़ा धार्मिक था, तो राजा भी पंडित जी को वहाँ सुनने के लिए आने-जाने लगे। राजा को पंडित जी की बातें बहुत अच्छी लगी। जब पंडित जी जाने लगे, राजा ने कहा, “आप मत जाइए,मै आपके लिए महल बनवाता हूँ, यहीं रहिए।” पंडित जी ने सोचा, कुछ दिन रुक जाते हैं। राजा ने उनके लिए वैसा ही ठाठ वाला महल बनवाया जैसा खुद के लिए था। एक दिन राजा ने पूछा, “अब तो हम दोनों में कोई अंतर नहीं रहा, मेरे जैसा ही ठाठ आपके हो गया?” पंडित जी बोले, “अंतर है, समय आने पर बताऊँगा।” कुछ दिन बाद, दोनों जंगल की ओर निकले। पंडित जी ने बग्गी रोकी और बोले, “राजन! मैं तो अब सब छोड़कर जा रहा हूँ, आप चलिए मेरे साथ। अगर आप नहीं चले तो यही अंतर है आप में और हम में।” और यही कह कर के पंडित जी चले गये और राजा देखता ही रह गया। उन्होंने सब सुख भोगा, लेकिन त्यागने का समय जब आया तब त्याग कर के दिखा दिया। राजा राज को नहीं छोड़ पाया लेकिन पंडित जी ने उसको परछाई की तरह से समझा और छोड़ कर के चले गए।
अंदर के उजाले में ही सभी देवी, देवता एवं अण्ड, पिण्ड, ब्रह्मांड है
हंसी, खुशी जीवन में कब आएगी? जब उजाला (रोशनी) आएगा। इस जीवन में अंधेरा ही अंधेरा है। जब सूरज निकलता है तो यहाँ उजाला दिखाई देता है लेकिन अगर आँख बंद कर लो तो उजाला नहीं रहेगा, अंधेरा ही रहेगा। तो उजाला कहाँ है? इसी घट में (मनुष्य शरीर में) उजाला है, प्रकाश है लेकिन इन बाहरी आँखों से नहीं देखा जा सकता है, वह तो अंदर में जो आँख है जब खुलती है तो उससे दिखाई पड़ता है। शरीर को चलाने वाली शक्ति “जीवात्मा” इन्हीं दोनों आँखों के बीच बैठी हुई है, उसमें एक आँख है जिसे दिव्य दृष्टि, आत्मचक्षु, शिवनेत्र, रूहानी आँख, थर्ड आई कहा गया है, इसी आँख से वह प्रकाश दिखाई देता है। उजाले में ही देवी-देवता रहते हैं, जितने भी अण्ड, पिण्ड, ब्रह्मांड के लोक हैं यह सब उजाले में ही हैं। वहाँ अंधेरा होता ही नहीं है। अब यह अंदर की आँख कब खुलती है? जब कोई रास्ता बताने वाला (वक्त के सन्त सतगुरु) मिलता है तब खुलती है।