पहले के युगों में लोग ध्यान से ही अंड लोक, ब्रह्माण्ड लोक की सैर अपने-अपने स्थान पर बैठे ही करते रहते थे – बाबा उमाकान्त महाराज

पहले के युगों में लोग ध्यान से ही अंड लोक, ब्रह्माण्ड लोक की सैर अपने-अपने स्थान पर बैठे ही करते रहते थे – बाबा उमाकान्त महाराज
फिर कर्मों की वजह से जब ध्यान लगना ही बंद हो गया तब व्यास ऋषि ने मंदिरों की मूर्तियों की आँखों में ध्यान लगाने को कहा
रेवाड़ी, हरियाणा। बाबा उमाकान्त महाराज ने 17 जुलाई 2025 के सतसंग में कहा कि पहले के युगों में तो लोग केवल ध्यान लगाते थे और ध्यान से ही इस भवसागर से पार हो जाते थे, इस मृत्यु लोक से, पिंडी द्वार से आगे निकल जाते थे और अंड लोक, ब्रह्माण्ड लोक, सतलोक, अलख लोक, अगम लोक की सैर अपने-अपने स्थान पर बैठे-बैठे ही करते रहते थे। लेकिन युग, समय बदला, परिस्थिति बदली, लोगों का आचरण खराब हुआ, उससे मलीनता आ गई, गंदगी आ गई, कर्म आ गए। लेकिन जब कर्म आ गए फिर भी यह ध्यान लगाने का रास्ता बंद नहीं हुआ, त्रेता में भी लोगों ने ध्यान लगाया। यह कर्म, जो आदमी आंख, कान, मुंह से कर डालता है, इसी से अच्छा काम भी होता है और बुरा काम भी होता है। लेकिन मन जब मोटा हो जाता है तब आदमी बुराई में फंस जाता है, तो बुरा कर्म जब होने लग गया तब कर्म इकट्ठा होने लग गए, और जैसे ही कर्म इकट्ठा हुए तो ध्यान लगना ही बंद हो गया।
मनुष्य की आँखों की रोशनी जब मूर्तियों की आँखों से टकराती तब उससे बने बिंदु पर लोग ध्यान लगाते थे
व्यास ऋषि जब आए तब उन्होंने कहा कि लोग ध्यान नहीं लगाते हैं और ध्यान में कामयाबी भी नहीं मिलती है, तो इनको बंधन में बांधना चाहिए। तब उन्होंने मंदिरों की स्थापना की और मूर्तियां बना दी। फिर लोगों से मूर्तियों के सामने जा कर के ध्यान लगाने को कहा। अब मूर्तियों की आँखों को बड़ी इसीलिए बनाया ताकि वे दूर से भी दिखाई पड़ जाएं। मूर्तियों की आंखों को चमकीली भी बनाया, और कहा कि तुम्हारी आँखों से इन मूर्तियों की आँखों को देखने की कोशिश करो (कंसंट्रेट करो)। आंखों से एक धार (रेंज) निकलती है और यही धार जब किसी पर टकराती है तो उस चीज की पहचान होती है। अब जैसे कांच के ऊपर टॉर्च जलाओ तो एक प्रतिबिंब (परछाई) बनता है क्योंकि जब चमकीली चीजों से चमकीली चीज टकराती है तो उसकी रोशनी भी तेज रहती है। उसी तरह से जब आंखों से जो रोशनी निकलती है, वह उन मूर्तियों की आंखों से जब टकराती थी तब एक बिंदु बन जाता था और उसी बिंदु को लोग देखते रहते थे और फिर उसी बिंदु पर उनका ध्यान केंद्रित हो जाता था।
जब सन्त आए, तब उन्हीं सारी चीजों को उन्होंने सरल कर दिया
जब सन्त आए, तब उन्हीं सारी चीजों को उन्होंने सरल कर दिया। और इसके साथ प्रार्थना, सुमिरन-ध्यान-भजन जोड़ा और मूर्तियों के बजाय, अपने ही घर में बैठ कर के अपनी आंखों से आंख बंद कर के ध्यान लगाने का तरीका बताया। पहले जितने भी ऋषि, मुनि, योगी, योगेश्वर रहे हों, सबने आंख बंद करके ही ध्यान लगाया। आंखों के अंदर की पुतली चमकीली है और जब आंख से निकली धार वहां टकराती है तब वहीं बिंदु बन जाता है और उसी को फिर साधक जब लगातार देखने लगता है, तो वह बिंदु हट जाता है और प्रकाश दिखाई पड़ने लगता है, आत्म साक्षात्कार होता है। आत्म साक्षात्कार, मतलब अपनी आत्मा जो परमात्मा की अंश है वह दिखाई पड़ने लगती है। तब आत्मज्ञान होता है कि जो शक्ति परमात्मा में है, वही शक्ति हमारे अंदर भी है और तब फिर यह पाप और पुण्य धीरे-धीरे नष्ट ही हो जाते हैं।