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Bihar News- क्या ‘बेटी बचाओ’ जैसे मुद्दे चुनावी घोषणाओं तक ही सीमित हैं? बिहार में लिंगानुपात बना गंभीर चिंता का विषय: 1000 लड़के पर सिर्फ 891 लड़कियां…

बिहार : बिहार में एक और जहां आगामी विधानसभा चुनावों के लिए राजनीतिक पार्टियां विकास, जातीय समीकरण और कानून व्यवस्था जैसे मुद्दों को लेकर कमर कस रही हैं, वहीं जनसंख्या संतुलन और सामाजिक विकास से जुड़ा एक गंभीर आंकड़ा सामने आया है। केंद्र सरकार की सिविल रजिस्ट्रेशन सिस्टम (CRS) रिपोर्ट 2022 के मुताबिक, बिहार में जन्म के समय लिंगानुपात (Sex Ratio at Birth-SRB) देश में सबसे कम है। बिहार में हर 1000 लड़कों पर केवल 891 लड़कियां जन्मी हैं।

बीते तीन सालों से यह आंकड़ा लगातार गिरावट में है, जो न सिर्फ सरकार की ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसी योजनाओं की जमीनी हकीकत पर सवाल खड़ा करता है। क्या “बेटी बचाओ” जैसे अभियान सिर्फ चुनावी जुमले बनकर रह गए हैं? कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने भी इस मुद्दे को लेकर नीतीश सरकार को घेरा है।

”बिहार में प्रति 1000 लड़कों पर सिर्फ 891 लड़कियां पैदा हो रही हैं। 2020 में यह अनुपात 964 था जो​ कि 2021 में घटकर 908 हुआ और 2022 में मात्र 891 रह गया। आखिर ऐसा क्या हो रहा है कि जन्म लेने वाले बच्चों में बेटियों की संख्या लगातार गिर रही है? एक तरफ महिलाओं पर लगातार हो रही बर्बरता और दूसरी तरफ लिंगानुपात के मामले में देश में सबसे खराब स्थिति इस बात का संकेत है कि बिहार का डबल इंजन महिलाओं के लिए खतरनाक साबित हो रहा है।”

तीन साल से लगातार गिर रहा है बिहार में लिंगानुपात क्या है आंकड़ा?

2022 में बिहार में प्रति 1,000 लड़कों पर महज 891 लड़कियों का जन्म दर्ज किया गया, जो देश में सबसे न्यूनतम आंकड़ा है। 2020 में राज्य ने जन्म के समय लिंगानुपात 964 दर्ज किया, जो 2021 में गिरकर 908 हो गया, और फिर 2022 में और गिरकर 891 हो गया।

यह लगातार गिरावट इस ओर इशारा करती है कि या तो लिंग निर्धारण (sex determination) तकनीकों का दुरुपयोग हो रहा है, या फिर सामाजिक सोच अब भी बेटी के जन्म को बोझ समझती है।

दूसरे राज्यों के आंकड़ों की बात करे तो 2022 में जन्म के समय कम लिंगानुपात वाले अन्य राज्य महाराष्ट्र (906), तेलंगाना (907) और गुजरात (908) थे। दूसरी ओर नागालैंड में सबसे अधिक 1,068 का आंकड़ा था, उसके बाद अरुणाचल प्रदेश (1,036), लद्दाख (1,027), मेघालय (972) और केरल (971) का स्थान था। असम जिसने 2021 में हर 1,000 लड़कों पर 863 लड़कियों के जन्म की सूचना दी थी, जो उस वर्ष का सबसे कम अनुपात था हालांकि 2022 में 933 तक सुधार दिखा है।

बिहार विधानसभा चुनाव: चुनावी मुद्दा बनेगा या दबा दिया जाएगा?

ये आंकड़ा बिहार विधानसभा चुनाव से पहले आया है, ऐसे समय में जब राजनीतिक दल हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड में चुनावों में कैश ट्रांसफर के वादों सहित महिला मतदाताओं के लिए कई घोषणाएं करते हैं। बिहार के राजनीतिक दल अक्सर महिला सशक्तिकरण को घोषणापत्रों में प्रमुख स्थान देते हैं, लेकिन SRB के आंकड़े बताते हैं कि जमीनी स्तर पर लड़कियों के प्रति भेदभाव, लिंग चयन और सामाजिक रूढ़िवादिता अभी भी व्यापक हैं।

बिहार में चुनाव आते ही हर दल ‘महिला सशक्तिकरण’, ‘बेटियों की शिक्षा’, ‘रोजगार’ और ‘सम्मान’ की बात करता है। लेकिन जब बात नीति और जमीनी क्रियान्वयन की आती है, तो ऐसे संवेदनशील मुद्दे गायब हो जाते हैं।

2024 के लोकसभा चुनाव में बिहार के 7.64 करोड़ मतदाताओं में से 47.6% महिलाएं थीं, हालांकि 2024 के आम चुनाव के दौरान राज्य में मतदान से पता चला कि मतदान किए गए 50.4% वोट महिलाओं से आए थे।

2020 के विधानसभा चुनावों में भी हर पार्टी ने महिलाओं के लिए अलग वादे किए-कोई 33% आरक्षण की बात करता रहा, तो कोई लड़कियों को स्कूटी देने का वादा करता रहा, लेकिन किसी भी दल ने SRB या महिला भ्रूण हत्या को लेकर ठोस रणनीति नहीं पेश की।

“बेटी बचाओ” अभियान: इरादा अच्छा, अमल कमजोर

केंद्र सरकार की ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ योजना का बजट हर साल घटता जा रहा है। एनएफएचएस और एनसीआरबी की रिपोर्ट्स भी बताती हैं कि लिंग निर्धारण की गैरकानूनी गतिविधियां अब भी जारी हैं। स्वास्थ्य केंद्रों पर जागरूकता की भारी कमी है। ग्रामीण क्षेत्रों में लड़की के जन्म को अब भी अशुभ माना जाता है।

विशेषज्ञ भी मानते हैं कि ये आंकड़ा स्वास्थ्य सेवाओं की निगरानी, भ्रूण लिंग जांच पर अमल और ग्रामीण क्षेत्रों में जागरूकता की कमी का संकेत है। बिहार में गिरता लिंगानुपात केवल आंकड़ा नहीं है, ये उस सामाजिक व्यवस्था का आईना है जो बेटी को आज भी बराबरी का दर्जा नहीं देती। और जब राजनीतिक दल इस समस्या को चुनावी मंच से दूर रखते हैं, तो स्पष्ट हो जाता है कि बेटी बचाओ जैसे नारे अब ‘वोट बटोरू वाक्य’ बनकर रह गए हैं। विधानसभा चुनावों में जब दल जातीय जनगणना और सामाजिक न्याय की बात कर रहे हैं, तो यह जरूरी है कि वे बेटियों के अस्तित्व और सम्मान से जुड़े इस बुनियादी मुद्दे को भी अपने एजेंडे में जगह दें।

बिहार के लिंग अनुपात का ये आंकड़ा न सिर्फ एक राष्ट्रीय न्यूनतम है बल्कि यह तीन सालों की लगातार गिरावट का स्पष्ट संकेत देता है। इस चुनौती से निपटने के लिए न केवल योजनाओं को मजबूत बनाना है, बल्कि कानूनी कार्रवाई, जागरूकता और समाज की सोच में गहराई तक बदलाव लाना बेहद जरूरी है।

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