छत्तीसगढ़

“क्या हम इंसान नहीं रह सकते ?” : शिखा गोस्वामी

“क्या हम इंसान नहीं रह सकते ?”

मुंगेली, छत्तीसगढ़। हम एक देश में रहते हैं—भारत में। यहाँ हर 100 किलोमीटर पर भाषा बदल जाती है, स्वाद बदल जाता है, पहनावा बदल जाता है। कहीं कोई गुजराती गरबा करता है, कहीं कोई पंजाबी भंगड़ा। कोई तमिल में बात करता है, कोई कश्मीरी लहजे में गुनगुनाता है। कोई गुरुद्वारे में अरदास करता है, कोई मस्जिद में सजदा करता है, कोई चर्च में प्रार्थना करता है, कोई मंदिर में दीप जलाता है।

फिर भी हम सब एक हैं—एक देश के नागरिक। हम सब एक ही जमीन के वासी हैं। हम भारतीय हैं। हम खुद को “भाई-भाई” कहते हैं। पर क्या वाकई हम भाई हैं ?

जब कोई त्यौहार आता है, तो वो किसी एक धर्म का नहीं होता, वो उस मोहल्ले की हर गली का त्यौहार बन जाता है—जहाँ गुलाल सबके चेहरे पर एक-सा उड़ता है, जहाँ दीपावली पर दीए हर आंगन में जलते हैं, जहाँ रोज़ा रखते वक्त हिन्दू पड़ोसी दरवाज़ा धीरे से बंद करता है कि ताकि सामने वाले उसके मुस्लिम पड़ोसी को कोई खलल न पड़े। जहाँ क्रिसमस के समय सभी के घर क्रिसमस ट्री बनता है। जहाँ गुरुपर्व पर सब लख लख बधाइयां देते हैं।

यही तो है किसी मोहल्ले में अलग अलग धर्मो के मानने वाले परिवारों की इंसानियत….। तो क्या ये इंसानियत हम राष्ट्र स्तर पर
नही अपना सकते….?

फिर क्यों… आखिर क्यों हम धर्म के नाम पर खून बहा देते हैं?

फिर क्यों… क्यों हर बार हम धर्म, जाति, भाषा और क्षेत्र के नाम पर बंट जाते हैं?

हम कब इतने कठोर हो गए कि हमें एक मासूम की लाश पर भी सुकून मिलने लगा?

हमें शांति नहीं चाहिए। हमें मोहब्बत नहीं चाहिए। हमें तो बस दुश्मनी चाहिए, नफ़रत चाहिए, मौत चाहिए… और वो भी चाहे वो बेगुनाह ही क्यों न हो!

हम भूल जाते हैं कि हमने ईश्वर को कभी देखा नहीं, पर एक भूखे को रोटी देकर, एक रोते को गले लगाकर, एक अनाथ को अपने घर बुलाकर, हम उसे महसूस जरूर कर सकते हैं।

एक सिख भाई जब लंगर लगाता है, तो पूछता नहीं कि भूखा कौन है, वो बस खाना परोसता है।

एक ईसाई बहन जब किसी अनाथ की सेवा करती है, तो धर्म नहीं देखती, बस इंसानियत को देखती है।

एक मुस्लिम परिवार जब ईद पर सेवइयाँ बाँटता है, तो वो पड़ोसी का मज़हब नहीं पूछता।

एक हिंदू माँ जब दुर्गा पूजा में “सबका भला हो” की प्रार्थना करती है, तो वो किसी एक धर्म की बात नहीं करती, वो पूरे संसार की मंगलकामना करती है।

फिर क्यों… क्यों जब कोई दंगा होता है तो हम यही लोग एक-दूसरे को मारने दौड़ पड़ते हैं?

क्या हमारे बच्चों की लाशें भी अब धर्म देखकर तौली जाएँगी?

क्या अब इंसानियत से बड़ा कोई मंदिर, मस्जिद, चर्च या गुरुद्वारा हो गया है?

नही… कदापि नही! इंसानियत से बढ़कर कोई भी धर्म नही होता।
हम भूल गए हैं कि हमारी असली पहचान ना हिन्दू है, ना मुस्लिम, ना सिख, ना ईसाई… हमारी असली पहचान है इंसान होना।

क्या इतना मुश्किल है कि हम एक साथ होली खेलें, ईद मनाएँ, क्रिसमस का केक काटें और गुरु पर्व की दीवटियाँ जलाएँ?

क्या इतना नामुमकिन है कि हम एक-दूसरे की भाषा समझें, भले बोल न सकें?

क्या इतना मुश्किल है एक साथ बैठकर हँसना, एक-दूसरे की पीड़ा में आँसू बहाना, एक ही छत के नीचे सभी त्यौहार मनाना?

क्या ये इतना असंभव है कि हम बिना धर्म पूछे एक-दूसरे से प्यार करें?

क्या इतना कठिन है कि हम किसी के दुःख को अपना समझें, भले उसका धर्म हमारा न हो?

सोचिए…

अगर एक दिन हम सब मिलकर एक साथ, बिना भेदभाव के एक ही थाली में खा लें, एक ही त्योहार में झूम लें, एक ही दर्द में रो लें…

तो क्या ये धरती फिर से स्वर्ग नहीं बन जाएगी?

सोचिए… क्या हम फिर से सिर्फ “इंसान” नहीं बन सकते?

शिखा गोस्वामी “निहारिका”
मारो, मुंगेली, छत्तीसगढ़

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