भारत देश को विश्व गुरु अगर बनाना है तो एक जुट होना पड़ेगा – परम सन्त बाबा उमाकान्त महाराज
भारत देश को विश्व गुरु अगर बनाना है तो एक जुट होना पड़ेगा – परम सन्त बाबा उमाकान्त महाराज
अतिथि को सम्मान, भोजन, विश्राम, ये भारत देश की परम्परा रही है
करनाल, हरियाणा। वक्त गुरु बाबा उमाकान्त महाराज ने लोकतंत्र सेनानी सम्मान समारोह में सभी लोकतंत्र सेनानियों से अनुरोध किया कि अगर आपको अपना नाम और काम आगे बढ़ाना है तो एक बात तो यह कि सारी धन-दौलत, मान-प्रतिष्ठा, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा ये सब तो छोड़ना पड़ेगा क्योंकि यह सब शरीर से सम्बन्ध रखते हैं और ये मृत्यु लोक है, यहाॅ इस शरीर को छोड़ना ही पड़ता है। देश में जो हिंसा हत्या बढ़ रही है, चरित्र लोगों का गिर रहा है, खान पान गलत हो रहा है इसको अगर सही करना है और देश को उन्नत के शिखर पर ले जाना है, भारत देश को विश्व गुरु अगर बनाना है तो एक जुट होना पड़ेगा।
आपसी खींचतान को समाप्त किया जाना चाहिए
एक बार दो साधु एक गृहस्थ के घर गए। गृहस्थ ने उनका आदरपूर्वक स्वागत किया। जब उनमें से एक साधु जंगल में शौच के लिए गए, तो गृहस्थ ने दूसरे साधु से कहा, “महाराज, लगता है कि आप उन दूसरे महाराज से छोटे हैं; वे अधिक ज्ञानी हैं।” इस पर दूसरे साधु ने उत्तर दिया, “वह तो घोड़ा है”। बाद में, जब पहले साधु लौट आए और दूसरे साधु गए, तो गृहस्थ ने पहले साधु से वही बात कही। पहले साधु ने उत्तर दिया, “वह तो गधा है, गधा”। रात में गृहस्थ ने दोनों साधुओं के लिए बिस्तर तैयार किए। पहले साधु की चारपाई के नीचे उसने घास रख दी और दूसरे की चारपाई के नीचे दाना। फिर वह आराम से भोजन करके सो गया। सुबह, गृहस्थ ने दोनों साधुओं के चरण स्पर्श करके पूछा, “महाराज, रात में कोई तकलीफ तो नहीं हुई?” दोनों ने शिकायत की, “तूने हमें भूखा मार डाला; पानी पी-पीकर और तारे देख-देखकर रात बिताई, और अब पूछता है कि तकलीफ तो नहीं हुई?” गृहस्थ ने उत्तर दिया, “मैंने तो आप दोनों के बिस्तर के नीचे भोजन रखा था। आपने कहा कि वह घोड़ा है, तो मैंने भूसी और चने का टुकड़ा रख दिया। और आपने कहा कि वह गधा है, तो मैंने घास रख दी। आपने खाया क्यों नहीं?” यह सुनकर, दोनों साधुओं को अपनी गलती का एहसास हुआ और उन्होंने अपनी भूल स्वीकार की। मतलब आपसी खींचतान से अपना ही नुकसान होता है, इसलिए इसको खत्म करना चाहिए।
भारत देश की परम्परा रही है – “आओ बैठो पियो पानी”
भारत देश की यह परम्परा रही है कि “आओ बैठो पियो पानी”। कोई दरवाजे पर पहुंच जाता तो “अतिथि देवों भवः” कहा जाता है कि मेहमान नहीं भगवान आ गए। ऐसा सेवा भाव गृहस्थों में था। इतिहास बता रहा है, ऐसी सच्चाई की भावना लोगों में थी कि राजा दशरथ ने कैकई को वचन दे दिया था तो अपने जिगर के टुकड़े भगवान राम को उन्होंने अपने से अलग किया। ये वह भूमि है कि परोपकार में राजा शिबि ने अपने मांस को काट-काट करके चढ़ा दिया था, दधीचि ऋषि ने अपनी हड्डी का दान देवासुर संग्राम में दे दिया था। भारत की संस्कृति रही है सम्मान करना , इज्जत करना, भोजन विश्राम कराना ,इसको लोग परोपकार समझते थे। ये चीजें अब दिखाई नहीं पड़ रही है।