यदि आपके बच्चे बराबर सतसंग सुनते रहेंगे, तो उनको विश्वास हो जाएगा, फिर आपको धोखा नहीं देंगे…

यदि आपके बच्चे बराबर सतसंग सुनते रहेंगे, तो उनको विश्वास हो जाएगा, फिर आपको धोखा नहीं देंगे
बुजुर्गों, माता – पिता की सेवा करना चाहिए क्योंकि जरूरत के समय उन्होंने हमें संभाला था
उज्जैन। परम सन्त बाबा उमाकान्त महाराज ने कहा कि समय धीरे-धीरे बदलता चला जा रहा है, दुनिया स्वार्थी होती चली जा रही है, सब लोग स्वार्थी हैं “सुर नर मुनि सब कै यह रीति। स्वारथ लागि करहिं सब प्रीति।।” लेकिन एक स्वार्थ ऐसा होता है कि अपना काम आदमी बना लेता है और दूसरे को तकलीफ नहीं देता है और यह तब होता है जब आदमी मानव धर्म का पालन करता है। जब गृहस्थ धर्म का आदमी पालन करता है तब वह यह सोचता है कि हमको माता-पिता की सेवा करनी चाहिए, बुजुर्गों को संभालना चाहिए क्योंकि जब हम घुटने के बल चलते थे तब इन्होंने ही हमको उंगली पकड़ा कर के खड़ा किया, फिर चलना सिखाया और जब यह इस उम्र में चल फिर नहीं पा रहे हैं तब हमें उनको सहारा देना चाहिए। लेकिन यह चीज देखो खत्म होती चली जा रही है। जो इंसान के काम आए; किसी के काम आए वही श्रेष्ठ पुरुष (अच्छा पुरुष) होता है।
बच्चे जब यह बात सोचेंगे कि एक दिन हमें भी बूढ़ा होना है तब वह उसी हिसाब से बुजुर्गों की सेवा करेंगे
जब बच्चे सतसंगों में आते रहेंगे, सतसंग सुनते रहेंगे तो यही चीजें जो किताबों में लिखी हैं या महात्मा उनको बोल कर के गए हैं वह उनको दोहराता रहेगा और वही बात जो उसने किताबों में पढ़ी उसको सतसंग में भी सुनने को मिलेगी तब उसको विश्वास हो जाएगा और तब फिर आपको उनसे धोखा नहीं मिलेगा। जवानों को और जो घर में नई नवेली बहूएं आती हैं उन्हें जब इस बात का भान ज्ञान सतसंग के माध्यम से हो जाएगा कि हम भी किसी दिन बुड्ढे होंगे तब हमें भी सहारे की जरूरत पड़ेगी। जब बहूएं सोचेगी कि जैसे हमारी सासु माँ को, दादी माँ को सहारे की जरूरत पड़ती है वैसे ही हमें भी जरूरत पड़ेगी कि कोई एक रोटी बना कर के खिला दे, एक ग्लास पानी पीला दे, तो फिर वह उसी हिसाब से सेवा करेंगी।
पुत्रवधू घर में जैसा व्यवहार-विचार देखती है वैसा ही सीखती है
एक घर में पति-पत्नी, उनका बेटा और एक बूढ़ी दादी माँ रहते थे। बेटे की शादी एक सतसंगी और संस्कारी लड़की से हुई। जब वह बहू ससुराल आई, तो उसने देखा कि उसकी सास अपनी बूढ़ी सास (दादी माँ) को तंग करती हैं—जला-भुना खाना देती हैं, फटे कपड़े पहनाती हैं और कड़वी बातें कहती हैं। बहू ने सोचा कि सास को सीधे कुछ कह नहीं सकती, तब उसने अपने गुरु को याद किया और उसे बुद्धि आ गयी। वह दादी माँ की सेवा करने लगी—बर्तन धोना, बिस्तर ठीक करना, बातें करना, हाथ-पैर दबाना। धीरे-धीरे वह देर रात तक उनके पास बैठने लगी। सास ने टोका, “क्यों जाती है तू उनके पास?” बहू बोली, “पिताजी ने कहा था, बुजुर्गों के पास बैठना, बहुत कुछ सीखने को मिलेगा।” सास ने डांटा, तो बहू ने समझाया, “मैं तो इस घर का रीति-रिवाज सीख रही हूं, ताकि वैसे ही निभा सकूं जैसे यहाँ होता है।” सास ने पूछा, “क्या सीखती है?” वह बोली, “मैंने उनसे पूछा कि क्या हमारी सासु माँ आपकी सेवा करती हैं? तो वे बोलीं, बेटी, अगर यह हमें बातों के तीर न मारे, तो हम समझेंगे कि यह हमारी सेवा कर रही है। अगर यह प्रेम से हमसे बात ही कर लिया करे, तो हम बहुत खुश रहेंगे।” सास ने पूछा, “और तब तूने क्या कहा?” वह बोली, “मैंने तो यही कहा कि मुझे तो यही सीखना है — जो इस घर का रीति-रिवाज है, मुझे भी वैसा ही करना है।” तब सासु माँ सजग हो गई, उनके दिमाग में यह बात आ गई कि हमें भी बूढ़ा होना है और एक दिन हमारे सामने भी यह समस्या आएगी। तब वह भी अपनी सास की सेवा करने लग गई।