मध्यप्रदेश

पूर्णिमा के दिन मनुष्य की आयु का हिसाब होता है, पहले जान-अनजान में बने पापों को माफ कराने के लिए लोग सन्तों के आश्रमों पर जाया करते थे…

पूर्णिमा के दिन मनुष्य की आयु का हिसाब होता है, पहले जान-अनजान में बने पापों को माफ कराने के लिए लोग सन्तों के आश्रमों पर जाया करते थे

जब सन्तों का दर्शन होता है; दृष्टि से दृष्टि मिलती है और दया होती है तब कर्म नष्ट होते हैं

उज्जैन। परम सन्त बाबा उमाकान्त महाराज ने कहा कि इस समय पर कलयुग का जोर हो गया, आदमी गृहस्थी सुलझाने में लगा रहता है लेकिन सुलझ नहीं पाती है, फंसा रहता है; निकल नहीं पाता है। पहले के समय में ऐसा नहीं था। इतना फंसाव भी नहीं था और लोगों का यह नियम बना हुआ था कि महीने में एक बार; अमावस्या, पूर्णिमा के दिन तो सन्तों के आश्रमों पर सतसंग सुनने के लिए जाना ही जाना है क्योंकि पूर्णिमा एक ऐसी तिथि आती है कि जिस दिन कहते हैं आयु का हिसाब होता है। हर आदमी को गिन करके सांसों की पूंजी खर्च करने के लिए मिलती है, लेकिन वह जैसा खर्च करता है उसी हिसाब से उसकी उम्र होती है। कोई सौ साल, कोई नब्बे साल तो कोई छोटी उम्र में ही चला जाता है। बैठे रहने पर सांस कम खर्च होती है, चलने पर ज्यादा होती है, सोने पर उससे ज्यादा होती है और भोग में बिताने पर सबसे ज्यादा खर्च होती है तो कहते हैं भोगी आदमी की आयु बहुत कम हो जाती है। जो योग करते थे, अपनी आत्मा को निकाल कर ऊपरी लोकों में ले जाते थे,उनके स्वांस बचे रहते थे, तो देखो ऋषि-मुनि बहुत दिन जिंदा रहा करते थे।

जान अनजान में बने पापों को माफ कराने के लिए लोग सन्तों के आश्रमों पर जाया करते थे

आदमी की आयु का हिसाब पूर्णिमा के दिन होता है। जैसे आप नौकरी करते हो तो एक महीने की तनख्वाह पहली तारीख को मिलती है, अब उसमें गैर हाजिरी लग गई तो कट जाती है, ऐसे ही आयु का भी हिसाब होता है। गृहस्थ आश्रम में आदमी जब रहता है तो कुछ जान में और कुछ अनजान में पाप बन जाते हैं जिससे उम्र ज्यादा कट जाती है। तब लोग उसको बचाने के लिए, माफ कराने के लिए सन्तों के आश्रमों पर जाते थे और जब उनकी दया हो जाती थी तो बहुत से कर्म ऐसे ही नष्ट हो जाते थे, क्योंकि कहा गया- “सन्मुख होई जीव मोहि जबहीं,जन्म कोटि अघ नाशें तबहीं।”

जब दृष्टि से दृष्टि मिलती है, सन्तों की दया होती है तो कर्म नष्ट होते हैं, कर्म जलते हैं।

जब सतसंग मिलता है तब हर तरह की जानकारी होती है

जब सन्तों के आश्रमों पर जाते थे और सतसंग मिलता था, तब गृहस्थ आश्रम में कैसे रहा जाए, भाई-भाई के साथ कैसा व्यवहार करे, पिता-पुत्र के साथ किस तरह का बर्ताव करे, पति-पत्नी का फर्ज क्या होता है, इन सब बातों की जानकारी होती थी। जब सतसंग से इन सारी चीजों की जानकारी होती थी तब लोगों का खान-पान, चाल-चलन, विचार-व्यवहार अच्छा हुआ करता था, उससे उनकी उम्र बचती थी और घर में शांति रहती थी। खाने-पहनने की दिक्कत नहीं रहा करती थी तो लोग समय निकाल कर के उस मालिक को भी याद किया करते थे। तो अमावस्या और पूर्णिमा महात्माओं के ही बनाए हुए हैं।

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