गुरु को अपनी कमियाँ भेंट करनी चाहिए - बाबा उमाकान्त महाराज
उज्जैन (म.प्र) : निजधाम वासी परम सन्त बाबा जयगुरुदेव महाराज के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी, वक्त के समर्थ सन्त सतगुरु, परम सन्त बाबा उमाकान्त जी महाराज ने 20 अक्टूबर 2024 को जयपुर, राजस्थान में दिए सतसंग में गुरु-शिष्य संबंध की गहराई और जीवन में संतोषी रहने के महत्व को विस्तार से समझाया।
उन्होंने कहा कि सच्चा शिष्य वही है जो अपनी सभी कमियों और कर्मों को गुरु को समर्पित कर, अपने भवबंधन काटने की प्रार्थना करे। वहीं, गुरु भी ऐसा होना चाहिए जो शिष्य से सांसारिक वस्तुओं जैसे धन, भेंट पदार्थ आदि की अपेक्षा न करे। संतोष और संतुष्टि पर प्रकाश डालते हुए गुरुजी ने कहा कि सच्ची शांति और सुख प्रभु दर्शन और आंतरिक अनुभव से ही संभव है।
शिष्य को ऐसा चाहिए जो गुरु को सब कुछ देय। गुरु को ऐसा चाहिए जो शिष्य से कछु न लेय।
पूज्य महाराज ने गुरु शिष्य के आपसी प्रेम के बारे में समझाते हुए कहा कि शिष्य ऐसा हो जो अपना सब कुछ गुरु को अर्पण कर दे और गुरु ऐसा जो शिष्य से कुछ न ले। शिष्य को सब कुछ गुरु को दे देना चाहिए; इसका अर्थ समझाते हुए कहा कि अभी ऐसा भाव आप सब में भर दिया जाए तो धन-दौलत आप अभी गुरु को ही देने लग जाओगे। अभी अपने नाक का, कान का निकाल कर फेंकने लग जायेंगे।इसका मतलब ऐसे कुछ नहीं है। तो फिर गुरु को क्या देना चाहिए ?
गुरु को अपनी कमियाँ भेंट करनी चाहिए। जो अपने कर्म बन गए हैं, उनको गुरु को देकर प्रार्थना करनी चाहिए कि हे गुरु महाराज! हमारे भव-बंधन को काटो। हमारा जो यहां भवसागर में लौटने का काम हो रहा है, नर्कों में जाने का काम बन गया है, उसको आप किसी तरह मेटो, काटो। इसको खत्म करो। हमारे क्रोध को कम करो, हमारे लोभ, मोह को कम करो, हमारे अहंकार को कम करो। यह गुरु से कहना चाहिए। इसके लिए गुरु से प्रार्थना करनी चाहिए। और गुरु को ऐसा चाहिए जो शिष्य से इन सब चीजों को, जिनको शिष्य महत्व देता है, उन चीजों को नहीं लेना चाहिए।
कौन सी चीज से मन में संतोष आ जाता है ?
वह कौन सी ऐसी चीज है कि जिससे "जब आवे संतोष धन, सब धन धूल समान" मन में संतोष आ जाए, संतुष्टि आ जाए। दुनिया से उदासीनता तभी आ सकती है, संतोष तभी हो सकता है, संतुष्टि तभी हो सकती है, जब प्रभु के रूप को अंतर में देखा जाए। प्रभु से मिल जाया जाए। जिसने दुनिया बनाई है, दुनिया की चीजें बनाई हैं, वह मिल जाए। तब यह सब चीजें मिल सकती हैं, संतुष्टि हो सकती है।
संतुष्टि और संतोष में से एक भी मिल जाए तो आदमी सुखी हो जाता है।
दो चीज होती हैं - एक होती है संतुष्टि और एक होता है संतोष। जैसे कोई बढ़िया-बढ़िया खा रहा है और संतुष्टि हो गई कि अरे खाने दो भाई, इसके प्रारब्ध में है, भाग्य में है तो खा रहा है; संतुष्टि हो गई तो शांति मिल गई। अगर वह चीज मिल गई और भरपेट खा लिया तब भी संतुष्टि हो जाती है। तो अगर प्रारब्ध का होगा, ऐसा कर्म करोगे तो वह चीज मिलेगी। अब अगर फकीरी लानी है तो महात्माओं से वह चीज मांगोगे तो वे नहीं देंगे कि ये उसी में फंस जाएगा, तब उसे संतोष हो जाएगा। संतुष्टि और संतोष यह दो चीज होती हैं। दोनों में एक भी मिल जाए तो आदमी सुखी हो जाता है।