स्मार्टफोन की लत: आधुनिक युग की नई बीमारी

डिजिटल दुनिया में खोती जा रही है वास्तविक जिंदगी, बढ़ रही हैं मानसिक और शारीरिक समस्याएँ ।
आज के दौर में स्मार्टफोन हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा बन चुका है। जानकारी प्राप्त करने से लेकर मनोरंजन, शिक्षा और कार्य तक — हर चीज़ स्मार्टफोन से जुड़ चुकी है। लेकिन सुविधा के साथ-साथ यह उपकरण अब “लत” का रूप लेता जा रहा है। विशेषज्ञों का कहना है कि स्मार्टफोन की अत्यधिक आदत लोगों के मानसिक स्वास्थ्य, नींद और सामाजिक संबंधों पर गंभीर प्रभाव डाल रही है।
हाल के सर्वेक्षणों के अनुसार, भारत में औसतन एक व्यक्ति दिनभर में 4 से 6 घंटे तक मोबाइल फोन पर समय बिताता है। खासतौर पर किशोर और युवा वर्ग सोशल मीडिया, गेमिंग और रील्स की दुनिया में इतना डूब चुके हैं कि वास्तविक जीवन से उनका जुड़ाव कम होता जा रहा है।
मानसिक स्वास्थ्य पर असर
लगातार स्क्रीन पर नजरें टिकाए रहने से दिमाग पर तनाव बढ़ता है। अनिद्रा, चिड़चिड़ापन, ध्यान की कमी और अकेलेपन की भावना जैसी समस्याएँ बढ़ रही हैं। कई मामलों में “नोमोफोबिया” यानी मोबाइल से दूर रहने का डर भी देखा गया है।
शारीरिक समस्याएँ भी गंभीर
स्मार्टफोन की लत न केवल मानसिक बल्कि शारीरिक स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक साबित हो रही है। लंबे समय तक झुककर मोबाइल देखने से गर्दन और रीढ़ की हड्डी पर दबाव बढ़ता है, जिससे “टेक्स्ट नेक” जैसी समस्याएँ पैदा हो रही हैं। साथ ही आँखों में जलन और सिरदर्द आम बात हो गई है।
परिवार और समाज पर प्रभाव
मोबाइल की लत ने रिश्तों के बीच दूरी बढ़ा दी है। परिवार के साथ समय बिताने की बजाय लोग स्क्रीन में खोए रहते हैं। बच्चों से लेकर बड़ों तक, हर कोई अपने फोन में इतना व्यस्त है कि संवाद और अपनापन घटता जा रहा है।
क्या है समाधान?
विशेषज्ञ सलाह देते हैं कि “डिजिटल डिटॉक्स” यानी कुछ समय के लिए मोबाइल से दूरी बनाना जरूरी है। भोजन के समय, पढ़ाई के दौरान और सोने से पहले मोबाइल से बचना चाहिए। इसके अलावा परिवार के साथ बातचीत, बाहर घूमना और किताबें पढ़ने जैसी आदतें अपनाने से मोबाइल निर्भरता कम की जा सकती है।
स्मार्टफोन सुविधा का साधन है, लेकिन उसका अत्यधिक उपयोग हमें उसकी “गुलामी” में बदल सकता है। समय आ गया है कि हम तकनीक के उपयोग और दुरुपयोग के बीच फर्क समझें — ताकि डिजिटल दुनिया में भी वास्तविक जीवन की खुशियाँ बरकरार रहें।