CG-सिहावा का अनोखी दशहरा….रावण नही बल्कि मारा जाता है सहस्त्रबाहु की नग्न मूर्ति..बुराई पर अच्छाई की जीत का पर्व यहा विजयादशमी के दिन नही बल्कि एकादशी को धूमधाम से मनाया जाता है..हर साल दूर दूर से आऐ लोगो का हुजूम उमड पड़ता है…

छत्तीसगढ़ धमतरी…
वक्त बदला लेकिन धमतरी के सिहावा गाॅव मे दशहरा त्योहार का मनाने के तरिके नही बदले और इस वनवासी गाॅव के अनोखे दस्तूर को देखने हर साल दूर दूर से आऐ लोगो का हुजूम उमड पडता है…बुराई पर अच्छाई की जीत का पर्व यॅहा विजयादशमी के दिन नही बल्कि एकादशी को धूमधाम से मनाया जाता है…इसकी और एक खासीयत है कि इस गाॅव मे बुराई के प्रतिक रुप मे रावन का पुतला नही बल्कि सहस्त्रबाहु रावन की नग्न मुर्ति होती है…जिसके पुजारी के व्दारा वध किऐ जाने के बाद श्रृद्धालु नोचनोच कर मुर्ति की पवित्र मिटटी को अपने घर ले जाते है और एक दुसरे को तिलक लगाकर जीत की खुशीयाॅ मनाते है…ये नजारा है धमतरी से करीब 70 किमी दूर सिहावा के सिहावा गाॅव का जॅहा का दशहरा देखने सुबह से ही लोगो को जमावडा लगना शुरु हो जाता है,क्योकि लोग गाॅव की उस अनोखी परम्परा का गवाह बनना चाहते है जो पीढी दर पीढी चले आ रही है और आज भी कायम है…एकादशी के दिन मानऐ जाने वाले इस गाॅव के दशहरे मे बुराई के रुप मे सहस्त्रबाहु रावन का वध होता है.जिसकी नग्नमुर्ति को मन्दिर का पुजारी मंत्रोवार के बाद खडग से छत विछत कर देता है …बाद इसके मुर्ति को नोचने लोगो को हुजूम उमड पडता है और…पवित्र मिटटी के लिऐ पाने होड मच जाती है,विधीविधान से किऐ जाने वाले इस धार्मिक उत्सव के बारे मे मान्यता है कि यूगो यूगो पहले वासना से ग्रसित से इस असुर का वध माता चण्डिका ने अपने खडग से किया था…तब से ये परम्परा चली आ रही है और इलाके के लोग आज भी आस्था की इस डोर को थामे चल रहे है,वैसे पुरातन काल से ही इलाके की पहचान बन चूके इस दशहरे को देखने लोग दूर दूर से आते है,पहले गाॅव के बाहर शितला माता को साधने के बाद चाॅदमारी होती है फिर पुजा अराधना का दौर सांझ ढलने के बाद ही होता है
खास बात ये है कि मुर्ति बनाने के लिऐ.घर घर घर से लाऐ मिटटी को गढने की शुरुवात अलसुबह से ही हो जाती है जिसे गाॅव का ही कुम्हार पीढीे दर पीढी बनाते आ रहा है और इसमे सर्भी धर्म सम्प्रदाय के लोग हाथ से हाथ मिलाकर सहयोग करते हे,सदियो परम्परा चली आ रही है और इलाके के लोग आज भी आस्था की इस डोर को थामे चल रहे है,कुछ अलग तरह से मनाऐ जाने वाले दशहरे के इस कार्यक्रम मे महिलाऐ शामिल नही होती और दिगर जगहो से अलग यॅहा बजाऐ सोनपत्ती के रावनवध के मिटटी को ही माथे पर तिलक लगाकर जीत की खुशी मनाई जाती है,सदियो से इलाके और सिहावा गाॅव मे भले ही एक दिन के लिऐ मेले जैसा माहौल हो पर कि एकादशी के दिन अनोखे तरिके से दशहरा मनाने को सैलानी देखने हर साल आते है ओर ये दूर दराज तक मषहुर हो गया है..
बहरहाल सप्तऋशियो की कर्मभूमि मे मौजूद सिहावा का दशहरे के इतिहास को अपने तरिके से संजोऐ सदियो से चला आ रहा है और ये धार्मिक विरासत पिढी दर पिढी आगे बढ रही है,जिसे देखने और समझने लोगो को इन्तेजार रहता है हर साल एकादश के दिन