मध्यप्रदेश

अच्छे भाव तथा मेहनत की कमाई से बना भोजन करने से मन, बुद्धि, चित्त सही रहते हैं – बाबा उमाकान्त महाराज

अच्छे भाव तथा मेहनत की कमाई से बना भोजन करने से मन, बुद्धि, चित्त सही रहते हैं – बाबा उमाकान्त महाराज

“जैसा खाओ अन्न वैसा होये मन, जैसा पियो पानी वैसी होये वाणी”

उज्जैन। परम सन्त बाबा उमाकान्त महाराज ने सतसंग में बताया कि बुद्धि बनती कैसे है, बुद्धि किस तरह से भ्रष्ट होती है और किस तरह से अच्छी रहती है। बाबा जी ने कहा देखो प्रेमियों! जो चीज आप लोग खाते हो उसी का खून बनता है। खून पूरे शरीर में फैलता है और उसी खून से ही ये शरीर चलता है। इसी शरीर में मन भी है, इसी शरीर में बुद्धि भी है और इसी शरीर में चित्त भी चिंतन करता है। तो सबका सम्बंध खाने-पीने से ही है। जब से लोग अखाद्य चीजों को खाने लग गए तब से धर्म को भी भूल रहे हैं। लोगों के कर्म खराब हो रहे हैं और जब कर्म खराब हों जाते हैं और धर्म नहीं रहता है तो सजा मिलती है। चाहे रावण रहा हो, कंस रहा हो या हिरण्यकश्यप रहा हो और चाहे जितने भी ऐसे आए जो धर्म से अलग हुए, मानवता से अलग हुए, तो विनाश ही हुआ।

दूषित अन्न खाने से भीष्म पितामह जैसे योगी की बुद्धि खराब हो गई।

कहा गया “जैसा खाओ अन्न वैसा होये मन, जैसा पियो पानी वैसी होये वाणी”। आप देखिए द्वापर के इतिहास में जब भीष्म पितामह अपने अंतिम समय में बाणों की शय्या पर लेटे हुए थे, तो ज्ञान का उपदेश दे रहे थे। क्योंकि आखिरी वक्त पर कर्म जब याद आते हैं, तो पश्चाताप होता है। यह देखकर द्रोपदी को हँसी आ गयी। तो भीष्म पितामह ने पूछा कि “द्रौपदी तू क्यों हँस रही है?” बोली “पितामह, ऐसे ही हँस दी”। तो उन्होंने कहा “नहीं, तेरे हँसने में बहुत बड़ा राज हुआ करता है। हँस कर तो तूने इतना बड़ा महाभारत करा दिया। बोल क्यों हँस रही है?” फिर द्रोपदी बोली “पितामह जी, इस समय तो आप बहुत अच्छी-अच्छी बात बता रहे हो, लेकिन ये ज्ञान, ये बुद्धि आपकी उस समय कहां चली गई थी जब दुशासन हमको भरी सभा में नग्न कर रहा था, चीर खींच रहा था? तब आप चुपचाप क्यों बैठे थे?” तब उन्होंने कहा “द्रौपदी, तू ठीक कह रही है। उस समय मैं पापी दुर्योधन का अन्न खा रहा था। इसलिए मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी।”। तो अब आप यह सोचो जब आदमी जानवरों का मांस खाएगा तो बुद्धि कहां से ठीक रहेगी? नहीं रहेगी।

भोजन बनाने वाले को कभी नाराज नहीं करना चाहिए

भाव से जो भोजन बनाया जाता है, उसमें ज्यादा पवित्रता रहती है। इसलिए कहा जाता है कि भोजन बनाने वाले को नाराज नहीं करना चाहिए। नहीं तो, वह जब टेंशन में रहेगा, तो देखो नाराजगी में लोग नमक ही ज्यादा कर देते हैं: मिर्च ही ज्यादा कर देते हैं। तो उनको खुश रखना चाहिए, उनसे उलझना नहीं चाहिए। घर में जो भाव से बना हुआ भोजन होता है और जो मेहनत से कमाते हैं, उनका जो भोजन होता है उसमें मन भी प्रसन्न रहता है, चित्त भी अच्छा चिंतन करता है और बुद्धि भी सही रहती है।

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