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Bihar Politics- बिहार की सियासत का गणित: क्यों डगमगा रही है भाजपा की नींव, कोर वोटर्स बना रहे दूरी…

Bihar Politics: बिहार में आगामी विधानसभा चुनावों के मद्देनज़र भाजपा विभिन्न रणनीतियों पर काम कर रही है। वहीं सवर्ण मतदाताओं को लुभाने की पुरज़ोर कोशिश की जा रही है। स्वर्ण आयोग बनाने का फैसला, पूर्व रेलमंत्री ललित नारायण मिश्र हत्याकांड की जांच आदि को सवर्ण समुदाय को साधने की कवायद के रूप में देखा जा रहा है।

सवर्ण वोट बैंक में सेंधमारी भाजपा की चिंता का कारण: राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार को यह अहसास हो रहा है कि सवर्णों के बीच पार्टी का जनाधार खिसक रहा है। खासकर युवा सवर्णों में जातिगत जनगणना, नीतीश कुमार के साथ गठबंधन और सवर्ण-केंद्रित नीतियों की कमी को लेकर नाराजगी है।

प्रशांत किशोर की जनसुराज जैसी पार्टियां भी सवर्ण वोटों में सेंध लगाने की कोशिश कर रही हैं। हालांकि, भाजपा अभी भी सवर्णों की पहली पसंद बनी हुई है, लेकिन खतरा साफ दिखाई दे रहा है। जनसुराज ने 2024 के चार विधानसभा उपचुनावों – बेलागंज, इमामगंज, रामगढ़ और तरारी में अपने उम्मीदवार उतारे, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली।

उपचुनावों में सवर्ण-प्रधान क्षेत्रों में जनसुराज को कुछ वोट मिले, जो भाजपा के वोट बैंक में सेंधमारी का संकेत हैं। बिहार में ब्राह्मण (3.65%) और राजपूत (3.45%) लगभग 30-35 सीटों पर प्रभावशाली हैं। जनसुराज की रैलियों में इन समुदायों की भागीदारी और प्रशांत किशोर की ब्राह्मण पृष्ठभूमि ने भाजपा के इन वोटरों में कुछ हद तक दरार पैदा की है।

2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा 39 से घटकर 30 सीटों पर आ गई, और बक्सर जैसे सवर्ण-प्रधान क्षेत्र में मिथिलेश तिवारी की हार सवर्ण वोटों के बंटवारे का संकेत देती है। ऐसे में, बिहार में सवर्ण वोटों को लेकर राजनीतिक दलों की चिंता और सक्रियता बढ़ गई है।

प्रशांत किशोर का ‘BRDK’ फ़ॉर्मूला: प्रशांत किशोर ने ब्राह्मण, राजपूत, दलित और कुर्मी (बीआरडीके) समुदायों को साधने की रणनीति अपनाई है। ब्राह्मणों के लिए, उन्होंने मिथिलांचल में सक्रियता बढ़ाई है, जहां उनकी अच्छी-खासी आबादी है। राजपूत वोटरों को लुभाने के लिए पूर्व सांसद उदय सिंह (पप्पू सिंह) को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया है, जिनकी राजपूत समुदाय में पैठ है।

प्रशांत किशोर स्वयं ब्राह्मण समुदाय से हैं, जिसका वे अप्रत्यक्ष रूप से लाभ उठा रहे हैं। उनकी स्वच्छ राजनीति और बिहार में व्यवस्था परिवर्तन की बात सवर्ण युवाओं को आकर्षित कर रही है, जो भाजपा की हिंदुत्व-केंद्रित लेकिन सवर्ण-विशिष्ट नीतियों की कमी से नाराज हैं।

जातिगत जनगणना और आरक्षण का प्रभाव: वर्ष 2023 में नीतीश कुमार सरकार द्वारा जारी जातिगत सर्वे ने बिहार में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी), अति-पिछड़ा वर्ग और दलित केंद्रित नीतियों को बढ़ावा दिया। इस सर्वे के बाद आरक्षण को 65% तक बढ़ाने और सामाजिक न्याय की राजनीति ने सवर्णों में यह धारणा पैदा की कि भाजपा उनकी उपेक्षा कर रही है।

भाजपा ने इस सर्वे का औपचारिक विरोध किया, लेकिन नीतीश कुमार के साथ गठबंधन के कारण इस मुद्दे पर उनका रुख कमजोर दिखा। अब केंद्र की एनडीए सरकार ने भी जातिगत जनगणना कराने की हामी भर दी है। प्रदेश के सवर्णों को लगता है कि एक न एक दिन एनडीए सरकार 65 प्रतिशत आरक्षण की मांग को भी स्वीकार कर लेगी।

यही कारण है कि भारतीय जनता पार्टी के प्रति सवर्ण युवाओं का मोहभंग हो रहा है। विशेषकर बिहार में उनकी आखिरी उम्मीद भाजपा ही थी, पर अब भाजपा को खुलकर पिछड़ा कार्ड खेलते हुए देख बहुत से सवर्ण युवक मायूस हुए हैं।

ललित नारायण मिश्र हत्याकांड की जांच, एक राजनीतिक हथियार: ललित नारायण मिश्र हत्याकांड की जांच फिर से कराने की मांग के पीछे राजनीतिक मकसद साफ दिखाई दे रहा है। भाजपा नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे ने इस हत्याकांड की जांच की मांग की थी। अश्विनी चौबे ने कहा, “जब 1984 में हुए सिख दंगों की जांच फिर से हो सकती है तो पूर्व रेलमंत्री की हत्या की जांच क्यों नहीं हो सकती है?”

भाजपा इस हत्याकांड की जांच की मांग उठाकर एक बार फिर से कांग्रेस को ब्राह्मणों का दुश्मन साबित करने की चाल चल रही है। ललित नारायण मिश्र अपने समय के एक बहुत ही लोकप्रिय और शक्तिशाली नेता रहे हैं। इस हत्याकांड की जांच हुई, करीब 30 साल बाद कुछ लोगों को सजा भी हुई।

मिश्र के घरवालों का मानना है कि जांच आनंदमार्गियों की तरफ मोड़कर जानबूझकर असली लोगों को जांच से बाहर कर दिया गया था। भाजपा और सहयोगी दल इसे कांग्रेस के खिलाफ हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं, वहीं मिथिलांचल और बिहार की क्षेत्रीय भावनाओं को भुनाने की कोशिश भी हो रही है।

मिश्र परिवार की सक्रियता और कोर्ट की सुनवाई इस मामले को और हवा दे रही है। हालांकि यह मांग न्याय की तलाश से शुरू हुई हो, लेकिन बिहार की सियासत में इसका उपयोग वोटबैंक को मजबूत करने और विपक्ष को कमजोर करने के लिए हो रहा है। माना जा रहा है कि यह मामला 2025 के विधानसभा चुनाव में और जोर पकड़ेगा।

कांग्रेस की सवर्ण रणनीति: कांग्रेस की सवर्ण-केंद्रित रणनीति भी भाजपा के लिए चिंता का विषय बनी हुई है। वर्ष 2023 में कांग्रेस ने बिहार के 38 में से 25 जिलाध्यक्षों को सवर्ण समुदायों से नियुक्त किया, जिसमें 12 भूमिहार, 8 ब्राह्मण और 6 राजपूत शामिल हैं। यह रणनीति सवर्ण वोटरों, विशेष रूप से ब्राह्मणों को फिर से जोड़ने की कोशिश थी।

मिथिलांचल, जहां ब्राह्मणों की अच्छी खासी आबादी है, में कांग्रेस ने मदन मोहन झा जैसे ब्राह्मण नेताओं को आगे बढ़ाया। 18 जनवरी को राहुल गांधी की पटना यात्राएं जैसे संविधान सुरक्षा सम्मेलन और 5 फरवरी को जगलाल चौधरी जयंती ने ब्राह्मणों और अन्य समुदायों में पार्टी की सक्रियता को बढ़ाया।

कांग्रेस ने कन्हैया कुमार को नौकरी दो-पलायन रोको यात्रा की कमान सौंपी है, जो ब्राह्मण युवाओं को शिक्षा और रोजगार जैसे मुद्दों से जोड़ रही है। कन्हैया की ब्राह्मण भूमिहार पृष्ठभूमि और वक्तृत्व कौशल मिथिलांचल और अन्य क्षेत्रों में युवा ब्राह्मणों को आकर्षित कर रहे हैं।

स्वतंत्रता के बाद से 1990 तक कांग्रेस बिहार की सियासत में हावी थी और ब्राह्मणों की प्रिय पार्टी रही थी। बिहार में 18 में से कई मुख्यमंत्री (जैसे श्रीकृष्ण सिंह, जगन्नाथ मिश्रा) ब्राह्मण या सवर्ण समुदाय से थे। आज भी हर गांव में कुछ ब्राह्मण वोटर विशेष रूप से पुरानी पीढ़ी के लोग कांग्रेस को अपनी ऐतिहासिक पार्टी के रूप में देखते हैं।

बिहार में सवर्ण वोटों को लेकर राजनीतिक दलों की बढ़ती सक्रियता इस बात का संकेत है कि यह समुदाय आगामी चुनावों में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला है। भाजपा, कांग्रेस और जनसुराज जैसी पार्टियां सवर्णों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए हर संभव प्रयास कर रही हैं।

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